पांडवों की मां महारानी कुंती का जीवन परिचय एवं उनसे जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी।
महाभारत जैसे महान और एक धर्म युद्ध के ग्रंथ में आपको बहुत से ऐसे पात्र मिल जाएंगे , जिन्होंने कहीं ना कहीं पर महाभारत की पूरी कथा में अपना अहम किरदार निभाया है ।महाभारत के सभी महत्वपूर्ण किरदार यदि अपनी भूमिका नहीं निभाते , तो आज हम सभी लोग महाभारत के इतिहास को कुछ और रूप में ही जान पाते हैं। महाभारत जैसे धर्म युद्ध को हिंदू धर्म बहुत ही महत्व का प्रदान करता है। आज हम इसी कड़ी में आप सभी लोगों को पांडवों की माता महारानी कुंती के बारे में और उनके जीवन में हुई उन सभी आवश्यक घटनाओं के बारे में बताने वाले हैं , जो आप सभी लोग को जानना बेहद आवश्यक है। महारानी कुंती के द्वारा कुछ अनजाने में हुए कार्यों की वजह से उनका चरित्र चित्रण लोग सही नजरिए से नहीं देखते। एक महारानी होकर भी उन्होंने कभी भी वह सभी सुखों का अनुभव नहीं किया , जो हर एक महारानी किया करती है। महारानी कुंती ने अपने जीवन में बहुत कड़े एवं कठिन मार्ग को देखा हुआ था। स्वयं भगवान श्री कृष्ण की बुआ होते हुए भी उन्होंने अपने जीवन में अनेकों प्रकार की कठिनाइयों का सामना किया है। तो आज हम आपको महारानी कुंती से जुड़े सभी महत्वपूर्ण पहलुओं से रूबरू कराने वाले हैं। अगर आप भी महारानी कुंती के पूरे जीवन चरित्र को समझना चाहते हैं , तो हमारे इस लेख को अंतिम तक अवश्य पढ़ें।
कुंती कौन थी ?
महाराज शूरसेन की पुत्री और भगवान श्री कृष्ण के पिता वसुदेव की बहन कुंती थीं। कुंती और वसुदेव का रिश्ता भाई-बहन का था। बहुत कम लोग ही जानते थे की कुंती का नाम पृथा था। महाराज शूरसेन के बुआ के लड़के कुंतीभोज को कोई भी संतान की प्राप्ति नहीं हुई थी और इसी को नजर में रखते हुए महाराज शूरसेन ने अपनी पुत्री पृथा को अपने बुआ के लड़के कुंतीभोज को गोद में दान कर दिया। तभी से पृथा का नाम कुंती के नाम से जाना गया। इस प्रकार कुंती ने अपने बचपन में ही अपने वास्तविक माता-पिता से दूर रहकर जीवन जीना सीख लिया था।
कुंती का दुर्वासा ऋषि से मिलना किस प्रकार से कुंती के जीवन में बदलाव लाया
कुंती बचपन से ही बहुत ही आध्यात्मिक विचारों वाली थी और उन्हें ऋषि मुनियों की सेवा आदर करना बहुत ही अच्छा लगता था। एक बार संयोग से दुर्वासा ऋषि कुंती के महल में अपना प्रदर्शन करते हैं। दुर्वासा ऋषि ने लगभग कुंती के महल में अपना लंबा वक्त बिताया और कुंती ने दुर्वासा ऋषि का खूब आदर सत्कार किया। दुर्वासा ऋषि कुंती के सेवा भाव से अति प्रसन्न हुए थे और उन्होंने कुंती से कहा , "हे पुत्री मैं तुम्हारी सेवा भाव से अत्यंत प्रसन्न हूं अतः तुम मुझसे एक ऐसा मंत्र प्राप्त करोगी , जिसका प्रयोग करके तुम किसी भी देवता का स्मरण करोगी , तो वह तेरे समझ प्रकट होकर तेरी पुत्र प्राप्ती की मनोकामना को पूर्ण करेगा"। इस प्रकार से दुर्वासा ऋषि ने कुंती को एक अद्भुत मंत्र प्रदान किया था।
कुंती द्वारा दुर्वासा ऋषि द्वारा प्रदान किए गए मंत्र का प्रयोग एवं कर्ण का जन्म
अचानक से एक दिन कुंती के मन में विचार आया कि दुर्वासा ऋषि ने जो उन्हें अद्भुत मंच प्रदान किया हुआ है , क्या वह सचमुच कार्य करता है ? या फिर बस यूं ही उन्होंने मंत्र को कुंती को प्रदान कर दिया है। मंत्र की जांच करने की अपेक्षा ने कुंती को विचलित कर दिया और फिर कुंती ने एकांत में जाकर उस मंत्र का उच्चारण किया। मंत्र उच्चारण करने के दौरान उसने भगवान सूर्य देव का स्मरण किया था। मंत्र उच्चारण करने के बाद भगवान सूर्य देव कुंती के समक्ष प्रकट हो जाते हैं और कुंती से कुंती की मनोकामना पूछने लगते हैं। कुंती भगवान सूर्यदेव को अपने समक्ष देखकर अत्यंत भयभीत और परेशान हो जाती है। हैरान परेशान होकर कुंती ने जाने अनजाने में भगवान सूर्यदेव से एक पुत्र की कामना कर दी।भगवान सूर्य देव ने उसकी मनोकामना पूर्ण करते हुए , उसे गर्भ धारण करने का वरदान दे दिया। भगवान सूर्य की आशीर्वाद से कुंती गर्भ को धारण कर लेती है। कुंती अपने गर्भधारण करने के बाद खुद को बहुत लज्जित समझती थी , क्योंकि उसका विवाह भी उस समय नहीं हुआ था और वह गर्भवती हो चुकी थी। लज्जा के मारे कुंती ने इस बात को सभी से छुपा के रखा और फिर कुंती ने कवच कुंडल धारण किए , हुए एक पुत्र को जन्म दिया। यही पुत्र आगे चलकर कर्ण के नाम से विख्यात हुआ। पुत्र को जन्म देने के बाद कुंती सोचने लगी , कि मैं इस पुत्र को कैसे पाल सकती हो और इसी विवशता में कुंती ने एक दिन गंगा किनारे कर्ण को मंजूषा में रखकर रात्रि के वक्त गंगा नदी में बहा दिया।कुंती और हस्तिनापुर के राजा पांडु का विवाह
जब कुंतीभोज को लगा , कि उनकी पुत्री अब विवाह योग हो गई है , तब उन्होंने अपने पुत्री के विवाह के लिए एक स्वयंवर कराया था। कुंती के स्वयंवर में बहुत बड़े-बड़े बलशाली राजा और दूर-दूर से राजकुमार उपस्थित हुए थे। उन सभी राजकुमारों में से हस्तिनापुर के राजा पांडु की मौजूद थे। कुंती ने अपने स्वयं पर में एक-एक करके सभी राजकुमार और राजाओं के पास जाकर उनके बारे में जाना और उनको देखा। मगर उन सभी राजकुमारों में से हस्तिनापुर के राजा महाराज पांडु ही कुंती को मनमोहित कर बैठे और फिर कुंती ने अपनी वरमाला को महाराज पांडु के गले में डाल दिया। उसी वक्त कुंती और महाराज पांडु का सौभाग्य पूर्ण तरीके से विवाह संपन्न कर दिया जाता है।महारानी कुंती के पति हस्तिनापुर के राजा पांडु की मृत्यु
विवाह संपन्न होने के बाद कुंती और महाराज पांडु ने कुछ समय एक दूसरे के साथ बहुत ही अच्छा समय व्यतीत किया था। एक वक्त था , जब कुंती के जीवन में कुछ खुशियों का आगमन हुआ था। एक बार महाराज पांडु शिकार के लिए जंगल की ओर जाते हैं। शिकार के दौरान महाराज पांडु एक हिरण समझकर मैथुनरत में विलीन ऋषि किंदम को मार देते हैं । वह ऋषि मरते मरते महाराज पांडु को शाप दे देता है , कि तुम भी इसी स्थिति में मृत्यु को प्राप्त होगे। महाराज पांडू शाप मिलने के बाद संन्यास लेके वन पे प्रस्थान करते है |
महाराज पांडु को दो पत्नियां थी एक तो कुंती और दूसरी माद्री थी। जब एक दिन महाराज पांडु अपनी दूसरी पत्नी माद्री के साथ संभोग करने की इच्छा करने लगते हैं और फिर वह भी उसी स्थिति में आ जाते हैं , जिस स्थिति में ऋषि की मृत्यु हुई थी। ऐसी स्थिति में होने के बाद महाराज पांडु को शाप के वजह से मृत्यु आ जाती है। इसी क्षण से महारानी कुंती का पूरा जीवन कठिनाइयों में परिवर्तित हो जाता है।
कुंती के पांच पांडवों को प्राप्त करने का रहस्य
जब महाराज पांडु जीवित थे और उन्हें दो विवाह करने के बाद भी कोई संतान नहीं थी , तब उन्होंने कुंती से कहा कि हम किसी ऋषि मुनि से मिलकर इस समस्या का निवारण करने का प्रयास करते हैं। तब महारानी कुंती ने महाराज पांडु को दुर्वासा ऋषि द्वारा मिले मंत्र के बारे में बताती हैं। महाराज पांडु से अनुमति लेने के बाद महारानी कुंती धर्मराज का आवाहन करती है और फिर उनसे उन्हें युधिष्ठिर की प्राप्ति होती है। युधिष्ठिर की प्राप्ति होने के बाद कुंती ने इंद्रदेव से अर्जुन और पवन देव से भीम को प्राप्त किया। तीन पुत्रों को प्राप्त करने के बाद महारानी कुंती ने अपनी सौतन माद्री को भी इस अद्भुत मंत्र के बारे में संपूर्ण जानकारी प्रदान कर देती है। महाराज पांडु की दूसरी पत्नी माद्री ने भी कुंती द्वारा बताए गए मंत्र का उच्चारण करके नकुल और सहदेव की प्राप्ति कर लेती है। इन दोनों महारानी होने जंगल में रहने के दौरान पुत्र धन की प्राप्ति की थी और महाराज पांडु जी अपनी मृत्यु होने तक अपनी दोनों पत्नियों के साथ जंगल में ही रहते थे।
कुंती के पति पांडु की मृत्यु के बाद हस्तिनापुर में अपने पुत्रों की हक की लड़ाई में कुंती का महत्वपूर्ण योगदान ?
जब महाराज पांडु की मृत्यु हो जाती है , तब उनकी दूसरी पत्नी माद्री भी अपने पति के साथ अग्नि शैया पर आत्मदाह कर देती है। माद्री ने आत्मदाह करने से पहले कुंती से वचन लिया की तुम अपने और मेरे दोनों पुत्रों को उनका हक दिलाओ कि और उनका सही तरह से पालन पोषण करोगी। इसके अतिरिक्त माद्री ने यह भी कहा कि यह कठिन कार्य तुम्हारे सिवा कोई और नहीं कर सकता और मैं तुम्हारी जगह नहीं ले सकती हूं। इसके बाद इस विषम परिस्थिति में जूझते हुए महारानी कुंती हस्तिनापुर की ओर अपने पांच पांडवों को लेकर पहुंचती हैं। महारानी कुंती ने अपने मायके ना जा कर अपने ससुराल जाने का निर्णय किया। अपने ससुराल हस्तिनापुर पहुंचने के बाद कुंती को यह सिद्ध करना पड़ा , कि यह पांच पांडव हस्तिनापुर नरेश पांडु के ही पुत्र हैं। महाराज धुतराष्ट्र यह बिल्कुल भी मानने को तैयार नहीं थे , कि सभी पांच पांडव उनके भाई पांडु के पुत्र हैं। तब महारानी कुंती ने अपने सारे हाल का वर्णन किया और धुतराष्ट्र को समझाने के लिए आग्रह किया। पितामह भीष्म और विदुर ने महारानी कुंती का साथ दिया और फिर कुंती और पांच पांडव सहित उनको हस्तिनापुर में रहने की अनुमति प्रदान की गई। कुंती के सामने इस विषम परिस्थिति में अनेकों प्रकार की चुनौतियां खड़ी हुई , परंतु कुंती ने उन सभी चुनौतियों को साहस पूर्ण तरीके से झेला और उसे स्वीकार किया।
धुतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने पांडवो का बचपण से बहोत विरोध किया और आगे चल कर शकुनी मामा के साथ मिलकर कई बार पांडवो को मारणे का प्रयास भी कीया इसी का परिणाम आगे चल कर महाभारत के युद्ध मे हुवा |
कुंती और कर्ण की मुलकात
पांडवो का 13 वर्ष का वनवास पूरा होणे के बाद श्री कृष्ण पांडवो का राज्य कौरवो से मांगने हस्तिनापुर की सभा मे गये | उस सभा मे भगवान श्री कृष्ण का कौरवो ने अपमान किया और तब ये तय हुवा की युद्ध मे जो जितेगा उसे ही राज्य मिलेगा | उस सभा के बाद श्री कृष्ण ने कर्ण को अपने साथ ले जाके उसे कुंती ने छिपाये हुए रहस्य के बारे मे बताया | श्री कृष्ण ने कर्ण को समझाया की तुम राधेय नही कौंतेय हो ईसीलीये कौरवो का साथ छोडके पाण्ड्वो का साथ दो | भगवान श्री कृष्ण ने कर्ण को सभी तरह के प्रलोभन दिये लेकीन कर्ण ने कौरवो की साथ नही छोडी |
कर्ण के रहते कौरवो को हराना नामूनकिन है ये बात भगवान श्री कृष्ण को मालूम थी | इसलीये कर्ण को कमजोर करणे के लीये श्री कृष्ण ने कुंती को युद्ध से पहले कर्ण के पास भेजा था | अपने पहले पुत्र को देख के माता कुंती रो पडी और कर्ण को पांडवो का साथ देने की विनती की लेकीन कर्ण ने अपने मित्र दुर्योधन को दिया हुवा वचन नही तोडा | तब कर्ण ने कुंती को वचन दिया की अर्जुन के सिवा वो किसी भी पांडव का वध नही करेगा |
युधिष्ठिर का शाप
महाभारत युद्ध मे कर्ण की मृत्यू के बाद शवो के ढेर मे जब कुंती ने कर्ण को देखा तब माता कुंती रोणे लगी यह देख कर सभी पांडव हैराण हो गये | युधिष्ठिर ने इस संबंध मे माता कुंती को पुछा तब भगवान श्री कृष्ण और माता कुंती ने सछाई बताई | कुंती ने बताया की कर्ण उंके पुत्र है और वो पांडवो के जेष्ठ भ्राता थे | यह सून के सभी पांडव बहोत दुखी हुए | युधिष्ठिर ऐसा सून तेही अपना आपा खो बैठे | युधिशिर इस बात से नाराज थे की कर्ण उंके जेष्ठ भाई थे पर इसकी जानकारी कुंती ने ऊनसे छुपाई |अपने ही बडे भाई की हत्या करणे का उन्हे बहोत दुख हो रहा था | अगर माता कुंती ने उन्हे ये बात पहले ही बताई होती तो इतना बडा महायुद्ध ही नही होता | क्रोध मे आकार युधिष्ठिर ने अपनी ही माता कुंती को शाप दिया की भविष्य मे कोई भी स्त्री कोई बात अपने पास छुपा कर नही रख सकेगी और किसी न किसी के साथ साझा करेगी | ईसीलीये आज भी माना जाता है की कोई भी स्त्री किसी भी बात को सिर्फ अपने तक छिपा नही सक्ती |
महाभारत के खत्म होने के बाद कुंती की मृत्यु कब और किस प्रकार हुई
महाभारत युद्ध खत्म होने के बाद लगभग 15 सालों के बीत जाने के बाद। हस्तिनापुर के वरिष्ठ लोग गांधारी ,विदुर, संजय, धृतराष्ट्र और कुंती वन की ओर प्रस्थान कर देते हैं। इन 3 लोगों के साथ संजय वन की ओर चले जाते हैं।इन सभी लोगों ने गंगा किनारे करीब 3 वर्षों तक अपने जीवन को व्यतीत किया। एक वक्त ऐसा आया जब धृतराष्ट्र स्नान करने के लिए गंगा किनारे गए हुए थे , तभी अचानक से पूरे वन में आग लग जाती हैं। आग को देख संजय और कुंती गांधारी भयभीत हो जाती हैं और महाराज धृतराष्ट्र की ओर उनका हाल जानने के लिए दौड़ पड़ते हैं। महाराज दृष्ट राष्ट्र को संजय बताते हैं कि महाराजजंगल में बहुत ही भीषण आग लग चुकी है , यदि हम इस जंगल को इस वक्त नहीं छोड़ेंगे तो हमारी मृत्यु निश्चय ही हो जाएगी।जब महाराज धृतराष्ट्र कहते हैं , कि यही ऐसा वक्त है जब हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। संजय के समझाने के बावजूद भी धृतराष्ट्र अपने निर्णय को बदलना नहीं चाहते थे और उनके साथ कुंती और गांधारी भी खड़ी रहीं। आखिर में थक हाथ के संजय ने उन लोगों को वहीं पर छोड़ कर हिमालय की ओर अपना प्रस्थान कर लिया। हिमालय की ओर ही संजय ने अपना सन्यासी जीवन व्यतीत किया। अंत में जंगल की आग में तीन लोगों को अपने अंदर समा लिया। इन 3 लोगों की मृत्यु होने के 1 वर्ष बीत जाने के बाद देव ऋषि नारद युधिष्ठिर के पास पहुंचते हैं और इस दुखद समाचार का वर्णन युधिष्ठिर से कर देते हैं। युधिष्ठिर उस वन की ओर जाता है , जहां पर उन सभी परिजनों का स्वर्गवास हुआ है। वहां पर पहुंचने के बाद युधिष्ठिर पूरे परंपरा एवं धर्म पूर्ण तरीके से उनका अंतिम संस्कार एवं क्रिया कर्म को संपूर्ण करता है ।
निष्कर्ष :-
कुंती के संपूर्ण जीवन परिचय से हमें यह शिक्षा मिलती है , कि यदि कोई भी इंसान किसी भी प्रकार के विषम परिस्थिति में फंसा हो , तो उसे साहस से एवं हताश ना होकर उस विषम परिस्थिति का सामना करना चाहिए। हार ना मानकर जो विषम परिस्थिति में खुद को साबित कर देता है , वही व्यक्ति सभी प्रकार की सफलताओं को हासिल करने के योग्य होता है।यदि हमारे द्वारा प्रस्तुति आलेख आपको पसंद आया हो , तो इसे आप अपने मित्रजन एवं परिजन के साथ अवश्य साझा करें। आपकी कोई विचार या सुझाव है , तो हमें कमेंट बॉक्स में अवश्य बताएं। "घर पर रहें , सुरक्षित रहें " ।
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