आखिर कौन थे एकलव्य?
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दोस्तों , गुरु शिष्य परंपरा प्राचीन भारतीय परंपरा रही है, जहां पर एक शिद्यार्थी अपने गुरु की शरण में रहकर उनसे विभन्न तरह के ज्ञान अर्जित करता था । इसके लिए वह गुरु के आश्रम में रहकर ही विद्यार्जन करता था।
भारत का इतिहास उठाकर देखें, तो हमे एक आदर्श शिष्य के अनेकों उदाहरण देखने को मिल जाएंगे । कई ऐसे शिष्य रहे हैं जिन्होंने अपने गुरु का यश बढ़ाया है। लेकिन जब गुरु-शिष्य परंपरा का एक सबसे अच्छा उदाहरण खोजने की बात आती है, तो सब एकमत से एकलव्य का नाम ही लेते हैं।
दोस्तों , प्राचीन भारत में धनुर्विद्या बहुत ही महत्वपूर्ण मानी जाती थी । हमारे देश मे कई एक से बढ़कर एक धनुर्धारी लोगों ने जन्म लिया है। उन्ही में से एक एकलव्य थे । एकलव्य की धनुर्विद्या के बारे में कहा जाता है ।कि वो अर्जुन और कर्ण जैसे बडे धनुर्धारी के समान थे |लेकिन यहा पर ध्यान देने वाली बात यह है की एकलव्य ने कैसे वह विद्या खुद से सीखी , चलीये विस्तार से जानते हैं।
निषाद
यास्क व्याकरण पंडित अपने ग्रंथ निरुक्त मे ऋग्वेद के एक शब्द "पंचम-वर्ण " का अर्थ निषाद बताया है |महाभारत के शांति पर्व और भगवत पुराण मे निषादों का वर्णन किया है | निषाद लोगों का रंग सावला, काले घुंगराले बाल,छोटी उंगलिया , कम तनी हुई नाक और सावली त्वचा होती थी |
रामायण मे भी निषादों का वर्णन आता है | निषादराज गुहा भगवान श्री राम के बहोत अच्छे मित्र थे जब भगवान श्री राम को वनवास के लीये जाना पडा तब निषादराज गुहा ने उन्हे गंगा नदी पार करणे मे सहायता की थी |
महाभारत मे निषादों ने कौरव और पांडव दोंनो तरफ से युद्ध मे भाग लिया था |
महर्षि वेद व्यास , भक्त प्रहलाद , निषादराज गुहा और एकलव्य निषाद थे |
एकलव्य के पिता हिरण्यधणू
हिरण्यधणू महाभारत के समय के निषाद राजा थे और एकलव्य के पिता थे | हिरण्यधणू शृंगवेरपुर राज्य के राजा थे | शृंगवेरपूर एक प्रजासतात्मक राज्य था | हिरण्यधणू के राज्य के अलवा और बहोत सारे निषाद राज्य महाभारत समय मे थे | एकलव्य कोई शूद्र नही थे | एकलव्य निषाद राजकुमार थे | शूद्र और निषाद मे बहोत अंतर होता है | जंगलो मे रहने वालों को निषाद कहते है | वन पशु पक्षियो को मारना और मछली पकडना उनका प्रमुख पेशा होता था |
धनुर्विद्या सिखने की ललक
एकलव्य भगवान श्री कृष्ण के चचेरे भाई थे | एकलव्य असल मे देवश्र्वा के पुत्र थे जो की माता कुंती और वासुदेव के भाई थे |
एकलव्य के पिता हिरण्यधणू निषाद राजा थे । इस वजह से उनको धनुष आदि विद्याओ का थोडा बहुत ज्ञान था । राजकुमार होने के नाते एकलव्य को बचपन से ही यह विद्या सिखाई जाने लगी। एक निश्चित समय के बाद एकलव्य धनुष से जुड़ी सभी विद्या अपने गुरु से सीख लेते हैं। लेकीन कहते हैं ना ज्ञान के प्यासे की प्यास कभी नही बुझती थी । इतना सीखने के बाद भी एकलव्य को यह लगता था की वह भी और सीख सकते हैं। लेकीन अब आगे उन्हे सिखाए तो सिखाए कौन?
एक दिन की बात है एकलव्य बहुत व्याकुल दिख रहे थे । कुछ बात उन्हे अंदर ही अंदर खाए जा रही थी। तभी उनके शपता की दृष्टी उनपर पड़ी। उनके पिता ने जरा भी देर न करते हुए अपने पुत्र एकलव्य से उनकी व्यथा का कारण पूछा। एकलव्य ने अपने पिता से कहा की वह अभी और धनुर्विद्या सीखना चाहते हैं और वो इसके लिए गुरु द्रोणाचार्य के पास जाएंगे । अपने पुत्र के मुख से ऐसे वचन सुनकर उनके पिता थोडा स्तब्ध रह गये
क्योंकी वह ये बात भली-भांती जानते थे की गुरु द्रोणाचार्य सिर्फ छत्रीय और ब्राह्मण को ही शिक्षा देते हैं। जबकी वो लोग निषाद थे । अपने पुत्र की लालसा को देखकर वह कुछ नही कह पाते और एकलव्य को गुरु द्रोण के पास जाने की अनुमति दे देते हैं। बस फिर एकलव्य निकाल पड़ते हैं, गुरु द्रोण के आश्रम की तरफ।
जब वो उनके आश्रम मे पहुंचते हैं तो देखते हैं की सभी लोग तरह तरह की विधाए सीख रहे हैं। इसी बीच इनकी दृष्टी द्रोणाचार्य पर पड़ती है।वह द्रोणाचार्य के समीप जाकर उन्हे प्रणाम करते हैं और अपना परिचय देते हुए उनके सामने धनुर्विद्या सीखने की अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं। तभी द्रोणाचार्य उनको जवाब देते हुए कहते हैं,वह सिर्फ राजपरिवार के बच्चों को ही यह शिक्षा देते है। “तुम निषाद हो इस वजह से तुम्हे यह शिक्षा नही दे सकते हैं।“ इतना सुनने के बाद एकलव्य वहा से चले जाते हैं। लेकीन एकलव्य के अंदर ज्ञान हासिल करने की आग जलती रहती है।
फिर एकलव्य जंगल मे एक जगह रुककर वहा पर गुरु द्रोणाचार्य की एक मूर्ती बनाते हैं और उन्ही को अपना गुरु मानकर खुद ही धनुर्विद्या का अभ्यास शुरू कर देते हैं। फिर बहुत समय बाद एक रात को गुरु द्रोणाचार्य अपने कुछ शिष्यो के साथ जंगल जाते हैं।
इसी बीच एक कुत्ते के भोंकने ने के कारण उनकी साधना में बाधा आ रही थी । तभी एकलव्य ने शब्द -भेदी बाण कु छ इस तरह से चालये की कुत्ते को एक भी खरोच नही आई और कुत्ते के मुँह में तीर कुछ इस तरह से समा गए की वह भोंक नही सका। तभी कु त्ता भागते-भागते द्रोणाचार्य के समीप पहुंचा ।
जब द्रोणाचार्य की नजर इस कुत्ते पर पड़ी, तो वह देखकर दंग रह गए की आखीर इस जगह ऐसा कौनसा धनुर्धर है, जो यह कार्य कर सकता है। धूंडते-धुंडते वो उस जगह पर पहुुँचे, जहा पर एकलव्य साधना कर रहे थे । वो ये सब देखकर हैरान थे । तभी उनकी नजर उस प्रतिमा पर पड़ी, जो उन्ही की थी । तब एकलव्य ने सारी बात बताई की वो उन्ही को अपना गुरु मानते हैं और आज जो भी विद्या उनके पास है वह अब उन्ही की देन है।
एकलव्य की बातें सुनकर एक वक्त के लिए तो द्रोणाचार्य को यकीन नही हुआ की कोई ऐसा भी कर सकता है। तभी द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कहा की यदी तुम सच मे मुझे अपना गुरु मानते हो तो मुझे गुरूदक्षिणा दोगे? इस पर एकिव्य ने हां कहा। तभी द्रोणाचार्य ने एकलव्य से उनके दाहिने हाथ का अंगुठा दक्षिणा के तौर पर मांग लिया। एकलव्य ने भी खुशी- खुशी अपने गुरु के इच्छानुसार अपने दाहिने हाथ का अंगुठा दे दिया , फिर द्रोणाचार्य वहा से चले गए।
एकलव्य की मृत्यु
एकलव्य दक्षिणा देने के बाद अपने पिता के राज्य चले जाते है | हिरण्यधणू के मृत्यू के बाद एकलव्य निषाद वंश का राजा बन गये । राजा बनने के बाद एकलव्य ने अपने पिता की तरह जरासंध का साथ चुना। जरासंध और कृष्ण एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन थे । एक ओर जहा जरासंध अन्याय के रास्ते पर चल ही रहा था , एकलव्य के साथ आने के बाद एकलव्य भी उसी राह में उसके पापों का भागीदार बन गया। एकलव्य की धनुर्विद्या बहुत ताकतवर थी । वह अकेले ही की यादव सेना को तहस-नहस कर देता था ।
यादव सेना उस वक्त की सबसे कुशल सेना मे से एक थी । तभी तो दुयोधन ने महाभारत के युद्ध के वक्त भगवान श्री कृष्ण से उनकी सेना को मांगा था ।
जरासंध और श्री कृष्ण के आखरी (17वे ) युद्ध मे एकलव्य ने अकेले ही यादव सेना का नरसंहार कर दिया था |जब भगवान श्री कृष्ण ने देखा की कैसे एकलव्य बिना अंगुठे से इतणी बढी नारायणी सेना को अकेले ही हरा रहा है तब वे आश्चर्यचकित हो गये | और न चाहते हुए भी मजबुरी मे भगवान श्री कृष्ण को एकलव्य का वध करना पढा |
हालंकी महाभारत युद्ध के बाद कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि :-
“तुम्हारे प्रेम में मैंने क्या क्या नही किया है। तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाओ इसके लिए मैंने द्रोणाचार्य का वध करवाया , महापराक्रमी कर्ण को कमजोर दिया और न चाहते हुए भी तुम्हारी जानकारी के बिना निषादपुत्र एकलव्य को भी वीरगती दी ताकि तुम सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनो ”।
अंत चाहे कुछ भी हो लेकीन एकलव्य को भारतीय इतिहास में एक अविश्वासनिय धनुर्धर और सच्चे गुरु भक्त के रूप में याद रखा जाएगा।
एकलव्य का पुत्र केतुमान
एकलव्य के वध के बाद उन्के बेटे केतुमान ने शृंगवेरपुर राज्य संभाला |जब महाभारत का युद्ध शुरू हुवा तब केतुमान ने कौरवों का साथ दिया | भीम ने महाभारत के तिसरे दिन केतुमान का वध किया |
एकलव्य मंदिर
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हरयाणा के गुरुग्राम शहर के खाण्डसा गाव मे एकलव्य को समर्पित एक मात्र मंदिर 1721 मे बनाया गया है |
लोगों के मान्यता के नुसार ईसी जगह पे एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य को गुरूदक्षिणा मे अपना अंघुठा दिया था |
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