बाजी प्रभु देशपांडे—एक वीर मराठा
अपने साम्राज्य को
बचाने के लिए मराठों ने जिस देशभक्ति की भावना के साथ संघर्ष किया था,
वह आज भी अतुलनीय है। देश का इतिहास मराठा शासकों की शौर्य
गाथाओं से भरा हुआ हैं। इन्हीं कुछ वीर मराठाओ में से एक थे बाजी प्रभु देशपांडे,
जिन्होंने वीर शिवाजी महाराज के प्राणों की रक्षा के लिए अपने
प्राणों की परवाह नही की थी और अकेले की हजारों सैनिकों की टुकड़ी से भिड़ते हुए
वीरगति को प्राप्त हुए थे।
बाजी प्रभु देशपांडे
उम्र में वीर शिवाजी महाराज से करीब 15 वर्ष बड़े माने जाते हैं। उनका जन्मकाल 1615 वर्ष माना जाता है । बाजी प्रभु देशपांडे की रगों में
बचपन से ही अपनी जन्मभूमि को विदेशी आक्रांताओं से मुक्ति दिलाने की भावना प्रबल
थी। वो किसी भी हाल में देश से मुगलों को वापस भेजना चाहते थे। उस वक़्त मुगलों से
बराबर की टक्कर शिवाजी महाराज ही लिया करते थे। बाजी प्रभु देशपांडे की शौर्य और वीरता को
देखते हुए शिवाजी महाराज उनको अपनी सेना में काफी अहम मानते थे और बाजी प्रभु देशपांडे भी
हमेशा ही शिवाजी महाराज की सुरक्षा के लिए हर तरह से तैयार रहते थे।
बाजी प्रभु देशपांडे
एक वीर और साहसिक यौद्धा होने के साथ-साथ एक जिम्मेदार व्यक्ति भी थे। तभी वीर
शिवाजी ने उन्हें अपनी सेना की दक्षिणी कमान की देखरेख का जिम्मा दिया था। वर्तमान
में यह इलाका कोल्हापुर के नाम से जाना जाता है। बाजी प्रभु देशपांडे हमेशा ही
शिवाजी की हर समस्या का समाधान ढूंढने के लिए तत्पर रहते थे।
जब आदिलशाह के सारे सरदार शिवाजी महाराज को हराने मे असफल हुए तब शिवाजी महाराज को हराने की जिम्मेदारी अफजल खान ने अपने कंदो पे ले ली ।अफजल खान ने इससे पहले मुघलों के शहजादे औरंगजेब को हराया था | आदिलशाह के सरदार अफजल खान ने वीर शिवाजी महाराज को युद्ध के लिए ललकारा ।
शिवाजी महाराज का युद्ध कौशल किसी से छुपा नही था। युद्ध के पूर्व शिवाजी महाराज, अफजल खान से युद्ध करने की तैयारी में व्यस्त थे। तभी वहां पर बाजी प्रभु देशपांडे पहुँचे। तब शिवाजी महाराज ने उनसे कहा कि वह किसी ऐसे योद्धा की तलाश में हैं, जो अफजल खान की तरह की बलिष्ठ, लंबा और मज़बूत हो। बस शिवाजी महाराज की यह इच्छा जानकर बाजी प्रभु देशपांडे कुछ मज़बूत, लंबे और बलिष्ठ मराठाओ की एक टोली लेकर आ गए। उसके बाद शिवाजी महाराज ने उन लोगों के साथ युद्धाभ्यास किया। इसके बाद जब युद्धभूमि में शिवाजी महाराज उतरे, तो वहां अफजल खान को मौत के घाट उतारने में उनको किसी भी तरह की दिक्कत नही आई। इस तरह से शिवाजी महाराज और बाजी प्रभु देशपांडे की सूझबूझ के चलते मराठाओं ने यह युद्ध जीत लिया था। बाजी प्रभु देशपांडे की ऐसी ही कई और शौर्य गाथाएं ,हैं जो इतिहास के पन्नो में कहीं खो सी गई हैं।
शिवाजी महाराज और उनकी मराठा
सेना छापामार युद्ध कौशल में महारथ हासिल कर चुकी थी। छापामार युद्ध को गनिमी कावा भी कहते है | उनकी सेना अपने युद्ध में
पहाड़ियों, घाटियों का बहुत अच्छा उपयोग किया करती थी,
जिसके चलते उन्होंने आदिल शाह और मुगल शासकों को धूल
चटाई थी। लेकिन मुगल शासक भी हर वक़्त बस इसी इंतजार में रहते थे कि कब उनको एक ऐसा
मौका मिले, जहां से वे शिवाजी महाराज के ऊपर दवाब बना सके और उन्हें पकड़ सके।
उन्हें यह मौका
आखिरकार पन्हाळा किले में मिला। अफजल खान को मारणे के सिर्फ 18 दिन बाद 28 नवंबर 1659 को शिवाजी महाराज ने पन्हाळा किल्ला जीत लिया | बात तब की है, जब शिवाजी इस
किले के आसपास अपनी सेना को एकत्रित कर रहे थे। उस वक़्त वहां शिवाजी महाराज की सेना,
उनके सेनापति, बाजी प्रभु देशपांडे और शिवाजी खुद भी मौजूद थे। पर न जाने
कहा से इस बात की जानकारी आदिल शाह को भी मिल गई। बस वह तो ऐसे मौके की तलाश में
ही था। आदिलशाह ने सिद्दी जोहर ,रुस्तूम ए जमान , फजल खान( अफजल खान का बेटा ),और सिद्धि मसूद को शिवाजी महाराज से लढणे के लीये भेजा | सिद्दी जोहर ने एक भी पल जाया किए बिना पन्हाळा किले के ऊपर चढ़ाई कर दी। मार्च 1660 मे सिद्दी जोहर ने पन्हाळा किल्ले की घेराबंदी की |
इस तरह हुए अचानक हमले
के कारण शिवाजी महाराज की मराठा सेना थोड़ा बिखर गई। आदिल शाह की सेना बड़ी भारी संख्या में
थी, वहीं
शिवाजी महाराज की सेना की संख्या कम थी। इस वजह से शिवाजी महाराज की सेना को इस युद्ध में काफी
नुकसान हुआ। हमला इतना तेज और भीषण था कि शिवाजी महाराज चाहकर भी वहां से नही निकल पा रहे
थे। यह युद्ध लगातार कई महीनों तक चलता रहा। इतने लंबे युद्ध के लिए मराठा सेना
तैयार नही थी। उसके पास इतने दिनों तक युद्ध करने के लिए जरूरी रसद भी नही था। सिद्दी जोहर इस बात को भली-भांति समझता था।
शिवाजी के चतुर
सेनापति नेताजी पालकर ने बाहर से किसी भी तरह शिवाजी को निकालने की हर संभव कोशिश की,
लेकिन वह भी सफल नही हो सके। ऐसे में शिवाजी महाराज ने एक योजना
बनाई। उन्होंने एक संदेशवाहक को सिद्दी जोहर के पास भेजा और कहा कि वह एक
समझौता करने के लिए तैयार हैं। समझौते का नाम सुनकर वह भी थोड़ा ढीला हो गया,
और लगातार चला आ रहा युद्ध कुछ दिनों के लिए शांत हो गया।
Image Source:-http://falkechandrakant.blogspot.com/
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बस मौका देखकर शिवाजी महाराज करीब 600 सबसे कुशल सैनिकों के साथ पन्हाळा किल्ले से भाग गये । शिवाजी महाराज के साथ बाजी प्रभु देशपांडे भी थे। उस किले से बाहर निकलने के तुरंत
बाद वे दो गुटों में बंट गए। एक गुट की अगुवाई शिवाजी के हमशक्ल शिवा नाई कर रहे, तो वहीं दूसरे
गुट में खुद शिवाजी महाराज थे, जिनके साथ मे बाजी प्रभु देशपांडे भी थे। आदिल शाह की सेना
को जैसे ही यह भनक लगी कि शिवाजी महाराज किले से बाहर निकल गए हैं, उन्होंने उनका
पीछा किया। लेकिन शिवाजी महाराज के पीछे जाने की जगह पर वो शिवा नाई के पीछे चले गए। शिवा नाई को पकड़ते ही उन्होंने उनका सिर धड़ से अलग कर दिया,
लेकिन आदिलशाही सेना को यह पछतावा रहा कि वह शिवाजी नही थे। तब
तक शिवाजी महाराज और उनके साथी काफी आगे निकल चुकी थी।
घोड खिंड की लढाई
Image Source:-thecustodiansin.wordpress.comकरीब 4000 आदिलशाही सैनिकों से बचकर भागते-भागते शिवाजी महाराज के घोड़े थक चुके थे। घोड़ खिंड के पास बाजी प्रभु देशपांडे ने शिवाजी महाराज को आगे जाने के लिए कहा और खुद वही कुछ सेनाओं के साथ आदिलशाही सेना का सामना करने के लिए रुक गए। शिवाजी महाराज आगे जाते रहे और वीर बाजी प्रभु देशपांडे सिद्दी मसूद से लोहा लेने को तैयार थे।
बाजी प्रभू देशपांडे के साथ उनके भाई फुलाजी देशपांडे , संभाजी जाधव , महाजी , बांदल , रागोजी जाधव ,गंगोजी महार और मोरे जैसे बडे सरदार थे | एक तरफ दुश्मन की 4000 सेना तो वही दूसरी ओर बाजी प्रभु देशपांडे के साथ 300 मराठा सेना। युद्ध का मंजर बहुत भयावह था। चारो तरफ लाशों का जमावड़ा था।
सिद्दी मसूद की सेना ने अपना पूरा जोर लगाया था , लेकिन बाजी प्रभु देशपांडे उनके सामने किसी चट्टान की तरह खड़े थे। दोनो हाथों में तलवार लिए और अपनी जख्मी शरीर के साथ वो लगातार आदिलशाही सेनाओं को मौत के घाट उतार रहे थे। बाजी प्रभू और उनके साथीदारो ने घोडखिंड 18 घंटो तक लढाई थी |
इधर शिवाजी महाराज विशालगढ़ किले के द्वार पर पहुँच गए थे। लेकिन यहां एक मुगल सरदार सुर्वे पहले से ही था, जिससे इनको युद्ध करना पड़ा। युद्ध सुबह तक चला, और शिवाजी ने इस युद्ध में जीत के साथ ही तीन तोपो के साथ बाजी प्रभु देशपांडे को यह संदेश दिया कि वह सुरक्षित पहुँच गए है।
इस बीच सुबह तक बाजी
प्रभु देशपांडे का शरीर तलवार, भालो के प्रहार से जख्मी हो चला था और उनकी बस आखिरी साँसे
चल रही थी। तीन तोपो की इस आवाज को सुनकर बाजी प्रभु देशपांडे के चेहरे पर गर्व
भरी मुस्कान आई और इसके बाद वह इस धरा से विदा हो गए,
और इस तरह एक वीर को वीरगति मिली।
Image Source:-hindujagruti.org
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बाजी प्रभू देशपांडे और उनके 300 सेना के बलिदान से घोडखिंड पावन हो गयी थी इसलीये घोडखिंड का नाम पावनखिंड रक्खा गया |
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